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अ॒पां मध्ये॑ तस्थि॒वांसं॒ तृष्णा॑विदज्जरि॒तार॑म् । मृ॒ळा सु॑क्षत्र मृ॒ळय॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

apām madhye tasthivāṁsaṁ tṛṣṇāvidaj jaritāram | mṛḻā sukṣatra mṛḻaya ||

पद पाठ

अ॒पाम् । मध्ये॑ । त॒स्थि॒ऽवांस॑म् । तृष्णा॑ । अ॒वि॒द॒त् । ज॒रि॒तार॑म् । मृ॒ळ । सु॒ऽक्ष॒त्र॒ । मृ॒ळय॑ ॥ ७.८९.४

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:89» मन्त्र:4 | अष्टक:5» अध्याय:6» वर्ग:11» मन्त्र:4 | मण्डल:7» अनुवाक:5» मन्त्र:4


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अपां) कर्म्मों के (मध्ये) मध्य में (जरितारम्) वृद्धावस्था को प्राप्त (तस्थिवांसं) स्थित मुझको (तृष्णा, अविदत्) तृष्णा व्याप्त हो गयी है। (मृळा) हे परमात्मन् ! आप मुझको इससे सुखी करें (सुक्षत्र) हे सर्वरक्षक परमात्मन् ! आप मुझे (मृळय) सुखी बनाएँ ॥४॥
भावार्थभाषाः - कर्म्मों के मनोरथरूपी सागर में पड़ा-पड़ा मनुष्य बूढ़ा हो जाता है और कर्म्मों का अनुष्ठान नहीं कर सकता। जिस पर परमात्मदेव की कृपा होती है, वही कर्म्मों का अनुष्ठान करके कर्म्मयोगी बनता है, अन्य नहीं, वा यों कहो कि उद्योगी पुरुष को ही परमात्मा अपनी कृपा का पात्र बनाते हैं, अन्य को नहीं। इसी अभिप्राय से परमात्मा ने इस मन्त्र में कर्म्मयोग का उपदेश किया है। कई एक लोग उक्त मन्त्र का यह अर्थ करते हैं कि समुद्र के जल में डूबता हुआ पुरुष इस मन्त्र में वरुण देवता की उपासना करता है और यह कहता है कि “लवणोत्कटस्य समुद्रजलस्य पानानर्हत्वात्” ॥ कि मैं समुद्र के जल के क्षार होने के कारण इसे पी नहीं सकता। यह अर्थ सर्वथा वेद के आशय से बाह्य है, क्योंकि यहाँ जल में डूबने का क्या प्रकरण ? यहाँ तो इससे प्रथम मन्त्र में कर्मों के प्रतिकूल आचरण का प्रकरण था, इसलिए यहाँ भी यही प्रकरण है। अन्य युक्ति यह है कि इस ११वें वर्ग के प्रारम्भ से ही कर्म्मों का प्रकरण है और (अपां मध्ये) इस वाक्य में (अप) शब्द से कर्म्मों का ग्रहण है, क्योंकि ‘अप’ नाम निरुक्त में कर्म्मों का है, जैसा कि “अपः, अप्नः, दंसः इत्यादीनि षड्विंशतिः कर्म्मनामानि” निघं०।२।१।४॥४॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अपाम्) कर्मणां (मध्ये) विषये (तस्थिवांसम्) स्थितं (जरितारम्) वृद्धावस्थां गतं मां (तृष्णा) पिपासा (अविदत्) व्याप्तवती (मृळा) हे परमात्मन् ! सुखय (सुक्षत्र) हे सर्वरक्षक ! (मृळय) सर्वथा सुखय ॥४॥